Tuesday 12 March 2019

एक करोड़ का जूता- सुरेन्द्र मोहन पाठक

नॉवेल-एक करोड़ का जूता- लेखक-सुरेन्द्र मोहन पाठक

      "बेटा, ये हीरे मेरे बुरे वक़्त का सहारा है। जब भी मैं अपने आप को खतरे में पाता हूं, मैं यह एक करोड़ का जूता पहन लेता हूं। मोती, भविष्य में तू कभी मुझे ये सफेद जूता पहने देख ले तो समझ लेना तेरे बाप के सिर पर कोई जान या माल का खतरा मंडरा रहा है।"

रास्ते में बुंदेला ने कार में अपनी बगल में बैठे मोती से पूछा -"बड़े होकर तुम क्या बनना चाहते हो?"
"धनवान"- मोती ने निसंकोच उत्तर दिया।
         बुंदेला हड़बड़ाकर उसे देखने लगा। प्रत्यक्षतः उसे मोती से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। वह तो सोच रहा था कि मोती कहेगा कि वह डॉक्टर या इंजिनियर या वकील या कलाकार वगैरह कुछ बनना चाहता था।

     "धनवान बनना कोई मुश्किल काम नहीं। आपको सिर्फ दूसरों को रास्ता दिखाना होता है कि पैसा कैसे हासिल किया जाता है, फिर आपको पैसा अपने आप हासिल हो जाता है।"

       प्रस्तुत उपन्यास पाठक साहब की थ्रिलर/विविध शृंखला का 19 वा नॉवेल है जो कि सन् 1985 जून में अशोक पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ और मार्केट में आते ही सेल के नए कीर्तिमान स्थापित करता हुआ इतनी तेज़ी से पहला एडिशन बिका और यूं मार्केट से लुप्त/अनुपलब्ध हुआ मानो नॉवेल कभी मार्केट में आया ही न था और इतनी धुंआधार बिक्री के बावजूद सेकंड एडिशन/ रीप्रिंट की चौतरफा डिमांड होने लगी जिसके मद्देनजर सिर्फ तीन महीनों में, गौर कीजिएगा की, जून में प्रकाशित नॉवेल का रीप्रिंट/ सेकंड एडिशन अक्टूबर 1985 में दोबारा अशोक पॉकेट बुक्स से रीप्रिंट होकर मार्केट में आ भी चुका।
      कथानक वस्तुत: एक तेज़ रफ्तार मर्डर मिस्ट्री है,17 साल पहले दीवाली की रात मोती अवतरमानी का पिता गोपाल आवतरमानी एक करोड़ के सफेद जूते और नोटों से भरे हुए एक ब्रीफकेस के साथ अपने इकलौते बिन मां के बेटे को छोड़कर हवेली  से बाहर कदम रखता है और फिर कभी वापिस न लौट पाता है।
  
        इस तेज़ रफ्तार कथानक में आगे कई ट्वीट्स और टर्नस है, 27 साल की उम्र में मोती अपने पिता और उसके साथ गायब हुए एक करोड़ के जूते, जिसमें की हीरों की सूरत में मौजूद संपत्ति की कीमत आज दस करोड़ के करीब थी को ढूंढने निकल पड़ता है, फिर आगे क्या होता है-
क्या वो अपने पिता के गायब होने का रहस्य सुलझा पाता है?
क्या वो उन हीरों को हासिल कर पाता है?
किस तरह वो सालों पहले घटित अनसुलझी गुथियों को सुलझाता है जिसके इन्वेस्टिगेशन के किसी नतीजे कि उम्मीद से क्या पुलिस क्या  डिटेक्टिव एजेंसियां तक अपने हाथ खड़े कर चुकी थी।
           कहानी काफी बड़े कैनवास पर लिखी गई है, संवाद काफी रोचक और नवीनता लिए हुए कहानी को कल्ट क्लासिक का दर्जा दिया जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, गौरतलब है कि, आज से तकरीबन 34 साल पहले लिखी कहानी वही ताज़गी वही रोचकता बनाए हुए है मानो कोई हालिया प्रकाशित रचना हो, इसमें कोई दो राय नहीं की ऐसा कमाल करना  सिर्फ पाठक साहब जैसे कुशल और सिद्धहस्त लेखक के लिए ही मुमकिन है। पात्रों का चरित्र चित्रण सटीक, कथानक इतने बड़े कैनवास पर फैला होने के बावजूद काफी कसा हुआ है और साथ ही अंत तक रहस्य रोमांच बनाए रखता है। मेरे लिए हमेशा ये महत्वपूर्ण रहा है कि एक मिस्ट्री नॉवेल में रहस्य अंत तक बना रहे और साथ ही अंत चौंका देने वाला हो तो "सोने पे सुहागा" और यह नॉवेल इसका सटीक उदाहरण है। तो जो पाठक/रीडर्स सशक्त कथानक, उम्दा प्लॉट, रोचक किरदार और डिटेक्टिव मिस्ट्री फिक्शन का मजा एक ही नॉवेल में लेना चाहते है वो जरूर इसे पढ़िए।

  मेरी रेटिंग इस उम्दा मिस्ट्री के लिए 5/5 स्टार्स।
समीक्षक-....


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