Monday 4 March 2019

सम प्रीत- एम. इकराम फरीदी

 एक समलैंगिक व्यक्ति की थ्रिलर गाथा   
         
          जनाब एम इकराम फ़रीदी साहब द्वारा लिखित “सम-प्रीत” रवि पॉकेट बुक्स, मेरठ (उत्तर प्रदेश) द्वारा प्रकाशित है। उपन्यास का मूल्य ₹१००/- (एक सौ रुपये मात्र) है, कुल पृष्ठ २५६ हैं जिनमें से कथा भाग २४५ पृष्ठों का है। कालानुक्रमिक अभिलेख के लिए उद्धृत है कि जनाब एम. इकराम फरीदी साहब के अब तक प्रकाशित उपन्यासों में यह छठा है।

           फरीदी साहब पाठकों के दिल में अब वो स्थान बना चुके हैं कि इनके आगामी उपन्यासों का पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहता है। इनकी विशेषता यह है कि इनके उपन्यास किसी न किसी गंभीर सामाजिक समस्या पर कोई काबिले गौर संदेश जरूर देते हैं। इनकी यही विशेषता इन्हें अन्य जासूसी व अपराध कथा लेखकों से अलग खड़ा करती है। मैंने इनके सभी उपन्यास पढ़े हैं और उन पर अपने विचार भी प्रकट किये हैं।

         प्रस्तुत उपन्यास “सम-प्रीत” ऐसे विषय पर आधारित है जिस पर अधिकतर लोग बात करने से कतराते हैं, जिस पर लिखा भी बहुत कम जाता है और ज्यादातर लोगों को इस विषय पर सही जानकारी भी नहीं होती। “सम-प्रीत” समलैंगिक प्रेम पर आधारित अपराध कथा है, परन्तु फरीदी साहब ने समलैंगिकता पर अपनी कोई राय प्रकट नहीं की है। यह एक ऐसी अपराध कथा है जिसका केन्द्र समलैंगिक हैं। यह फरीदी साहब का एक साहसिक प्रयत्न कहा जा सकता है।

उपन्यास का कव्हर देखा जाए तो, कव्हर एक फैन द्वारा डिज़ाइन किया गया है जिसका चुनाव एक प्रतियोगिता के माध्यम से किया गया है। रंगसज्जा ठीक है एवं चित्र कथा एवं शीर्षक के अनुरूप है। परन्तु मेरे मतानुसार, कव्हर डिज़ाइनिंग को किसी प्रतियोगिता का विषय न बना कर प्रोफेशनल आर्टिस्ट्स से ही कव्हर डिज़ाइन करवाए जाने चाहिए।

शीर्षक की बात करें तो, “गुलाबी अपराध” के बाद फरीदी साहब का यह दूसरा उपन्यास है जिसका शीर्षक हिन्दी में है। मेरे विचार में, हिन्दी उपन्यास का शीर्षक भी हिन्दी में ही होना चाहिए। शीर्षक “सम-प्रीत” से कथावस्तु का अंदाज आना कठिन है, कहने का तात्पर्य यह कि “सम-प्रीत” शब्द से हर कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि कहानी समलैंगिकों पर आधारित है। कव्हर पर लिखी पंक्ति, “नवदंपति के पुरूष सदस्य को भी जब एक पति की जरूरत शिद्दत से आन पड़ी”, कव्हर चित्र और शीर्षक “सम-प्रीत” मिल कर यह अवश्य स्पष्ट कर देते हैं कि कहानी समलैंगिकता/समलैंगिकों के ईर्दगिर्द बुनी गई है।

           उपन्यास को खोला जाए तो, पेपर क्वालिटी, छपाई और अक्षर विन्यास हमेशा की तरह ही हैं, परन्तु इस बार अंत तक टंकण त्रुटियां (typing mistakes) बहुत हैं। लगता है प्रूफ रीडिंग में यथोचित सावधानी नहीं बरती गई। प्रकाशन में इतनी देरी के बाद भी टंकण त्रुटियां होना आश्चर्यजनक है।

         अब बात करते हैं कहानी के बारे में, कहानी एक “मर्डर मिस्ट्री” है और एक विवाहिता अंकिता के बारे में है जिसे पता चलता है कि, उसका पति मनोज “गे” है और उसके पति का एक बॉयफ्रेंड/पति सन्नी है जिसे वह अपने घर में साथ ही रहने बुला लेता है और उसके लिए एक लड़की की तरह सजने संवरने लगता है। दुनिया की कोई भी विवाहिता, जब तक खुद “लेस्बियन” न हो, अपने पति का “गे” होना सहन नहीं कर सकती, तो अंकिता कैसे कर सकती थी? अंकिता को यह भी पता चलता है कि उसके पति का पति सन्नी “बाइसेक्सुअल” है। कहानी में अंकिता और मनोज की बीती ज़िंदगी में से किरदारों की वापसी होती है, अंकिता, मनोज और सभी किरदार अपनी चालें चलते हैं, और रहस्य गहराता जाता है.. कहानी के बारे में इससे ज्यादा बताना उचित नहीं होगा!

          फरीदी साहब ने समलैंगिक मानसिकता, समलैंगिकों की मनोदशा और उनके हाव-भाव तथा रूचियों का अच्छा चित्रण किया है। कहानी २४५ पृष्ठों की है, आधे से ज्यादा पृष्ठ समाप्त होने के बाद भी यही पता नहीं चलता की खून किसका होने वाला है। अपनी रहस्य-रचना की कला का सार्थक उपयोग फरीदी साहब ने किया है, अंत तक वे पाठकों को बांधे रखने में सफल हुए हैं। पठनीयता की दृष्टि से देखा जाए तो उपन्यास एक ही बैठक में पठनीय है। मैंने इसे एक ही बैठक में न सही, जिस दिन मिला उसी दिन में पढ़ लिया था।

           संवादों की बात की जाए तो संवाद “रिवेंज” की तुलना में कलात्मक तो नहीं हैं, पर कहानी के अनुरूप ही हैं और अनावश्यक रूप से लंबे न होने के कारण कहानी की गति को धीमा नहीं करते।

      भाषा व कथाकथन शैली सरल है, अनावश्यक कलात्मकता नहीं है, जिससे कहानी के फ्लो में बाधा उत्पन्न नहीं होती। एक ही बैठक में पठनीय उपन्यासों की यह भी एक विशेषता होती है।

       कहानी की गति मध्यम है। अपराध कथाओं में जहाँ अपराध घटित होने के बारे में पता चलता है वहीं से कहानी में दिलचस्पी बढ़ती जाती है, अब ये लेखक की प्रतिभा पर निर्भर करता है कि तब तक वह पाठकों को बांधे रख पाए और बोर न होने दे। फरीदी साहब पाठकों को बांधे रखने में तो सफल हुए हैं।

         फरीदी साहब कानून के विषय में थोड़ा चूक गए हैं। पुलिस के अबोधपने से चार्जशीट बनाने, मस्तिष्क का बिल्कुल उपयोग न करने और अदालत का कीमती टाईम खराब करने के लिए जज को यह फैसला करने का हक नहीं कि केस का जांच अधिकारी अगले किसी केस में जांच अधिकारी होगा या नहीं। ऐसी सजा सिर्फ पुलिस के उच्चाधिकारी ही दे सकते हैं, पर पुलिस के उच्चाधिकारियों को भी ऐसा आदेश जज द्वारा नहीं दिया जा सकता।

    अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि उपन्यास एक ही बैठक में पठनीय है। मैं “सम-प्रीत” को ७/१० की रेटिंग देता हूँ।

समीक्षक -संदीप नाईक


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