Saturday 16 December 2017

ए TEरेरिस्ट- एम. इकराम फरीदी

ए TEरेरिस्ट
लेखक : एम. इकराम फरीदी(Md Ikram Faridi)
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फरीदी भाई के अब तक पढ़े गए उपन्यासों में मैं इसे 'दी बेस्ट' का ख़िताब देने की सोच रहा हूं। फिर ख़याल आता है कि ऐसा करना कहीं-न-कहीं बाकी उपन्यासों के साथ थोड़ी नाइंसाफ़ी हो जाएगी। वजह ये कि पहले शाया हुए नॉवेल्स अलग-अलग मौजू पर लिखे गए हैं और फरीदी साहब ने अपनी तरफ़ से उन्हें उनकी ज़मीन पर मुकम्मल साफ़गोई से काफ़ी मेहनत करके लिखा है और अपनी तरफ़ से उनको दी बेस्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि मैं भी 'ए TEरेरिस्ट' को फरीदी साहब के अब तक शाया हुए नॉवेल्स में दी बेस्ट कहना चाहते हुए भी नहीं कह रहा हूं।

'ए TEरेरिस्ट' किस्सा है नए दौर के उन कमउम्र मोमिन नौजवानों के ऊपर जो एक ख़ास मजहब की ग़लत तरीक़े से तफसीलबयानी के जाल में फंसकर जेहाद का ग़लत मतलब समझ लेते हैं। ये दास्तान है उन मौलानाओं की भी, जो नहीं जानते कि उन्हें उनके ही दीन और मजहब को ग़लत तरीक़े से तबलीग करने के लिए कैसी शातिराना चालें चली जाती हैं जिसमें सियासी ताकतें और दूसरे मुल्क वाले भी शामिल हैं। ये किस्सा है मुल्क में रहने वाले उन अमनपसंद मोमिनों का भी, जो किसी भी कीमत पर अपने मुल्क़ में नफ़रत और दहशतगर्दी का आलम नहीं चाहते और चैन-ओ-सुकून की ज़िन्दगी के हिमायती हैं, जो अपने साथ-साथ दूसरों की ज़िन्दगी को भी महफ़ूज़ देखना चाहते हैं और नफ़रत फैलाने वाली सियासी चालों को बख़ूबी समझकर उसका मुक़ाबला भी करते हैं क्योंकि उनके भीतर भी हुब्बुल वतनी का लहू गर्दिश करता है।

पूरा नॉवेल पैसा वसूल है ख़ासकर मौलाना इज़हार की तक़रीर...वाह वाह, पूछिए मत..! पाई पाई वसूल हो गए। बेहतरीन लुत्फ़! मैं तो जितना पढ़ता जा रहा था उतनी ही हँसी आ रही थी और ताज्जुब भी हो रहा था कि क्या ये वाकया एक ऐसा नॉवेलनिगार लिख सकता है जो ख़ुद मोमिन जमात से ताल्लुक रखता हो? लेकिन हकीकत यही थी। जब-जब मौलाना की तकरीर हुई तब-तब मैं लुत्फ़अन्दोज़ होता रहा और मख़सूस हर्फ़ों और सारे जुमलों का पूरा-पूरा लुत्फ़ लिया। हाँ, हुक्कुल अल्लाह और हुक्कुल इबाद- ये दो चीज़ें मैं नहीं जानता था। इस नॉवेल के ज़रिए मेरी इस जानकारी में इजाफ़ा हुआ।

कहानी में विजय-विकास की मौजूदगी है लेकिन विकास की खूंखारता वैसी नहीं दिखाई गई है जैसी वेद प्रकाश शर्मा जी के नॉवेल्स में हुआ करती थी, यह देखकर काफ़ी अच्छा लगा। विजय को पूरा स्पेस मिला है और वह अपनी सदाबहार टोन में है। उसकी ऊटपटांग हरकतें वैसी ही हैं लेकिन यह सबको मालूम है कि ऐसी ही ऊटपटांग बातें करने वाला और हमेशा अपने निक़ाह कराने की बात करने वाला यह शख़्स बहुत ही टैलेंटेड और माइंडेड है और हमेशा ही पर्दे के पीछे रहकर बड़े-बड़े कामों को अंजाम देता रहता है और इस बात की परवाह भी नहीं करता कि उसके काम का उसे क्रेडिट भी मिले।

भारत के ख़िलाफ़ दुश्मन मुल्क किस तरह यहाँ की सियासी पार्टियों के साथ मिलकर इसे बर्बाद करने की साजिशें बुनते हैं या बुन सकते हैं वह भी बख़ूबी दिखाया गया है। कहानी में जगह-जगह एहसास ही गहराई को शिद्दत से रचा गया है। इतने सलीके से एहसासों की गहराई को दिखाया गया है कि किताब को बिना पूरा किए छोड़ने का मन नहीं होता।

मुखबिर जब अतहर के कमरे की तलाशी लेने जाता है उस सीन से लेकर नॉवेल की रफ़्तार बहुत तेज़ हो जाती है। नयागंज इलाके की गली का मुठभेड़, अतहर की आतंकी वारदात, पुलिस बल से लड़ाई, ब्लैक कमांडो का ऑपरेशन बहुत हैरतअंगेज तरीके से लिखे गए हैं। मौलाना इज़हार का जो अंजाम दिखाया गया है वह बहुत दर्दनाक है, उसे आसान तरीके से भी किया जा सकता था। आख़िर वह भी एक इंसान ही तो है- जन्नत और बहत्तर हूरों के लालच में उसने अपना दिमाग़ ख़राब भले ही कर लिया हो लेकिन होश वाले तो कम-से-कम वैसी दरिंदगी न दिखाएँ। हाँ, देवेंद्र प्रताप और मौलाना इज़हार- इन दोनों का एक ही अंजाम एक साथ वैसा ही दिखाना चाहिए था जैसा कि देवेंद्र प्रताप का दिखाया गया है। ख़ैर, ये मेरी सोच है।

मजहब के नाम पर दहशतगर्दी, अख़लाक़ वाकया, अवॉर्ड वापसी, जे एन यू की घटना, भारत तेरे टुकड़े होंगे....इन सब मुद्दों का जिस मुकम्मल तरीके से ज़िक्र करते हुए हालातों की तफसीलबयानी की गई है उससे फरीदी साहब की आलिम समझ और वाकयों को समझने की लियाकत पता चलती है।

आख़िर में जब मेहविश रोते हुए अपने भाई को सरेंडर करने को कहती है और भाई की सलामती के लिए अपनी ख़्वाहिशों की क़ुर्बानी देने को तैयार हो जाती है, वह वाक़या दिल को छू जाता है। जगह-जगह ऐसे नाज़ुक एहसास रूह को झकझोर देते हैं। मेहविश का कॉलेज प्रोग्राम भी कुछ ऐसा ही रहता है। उस वक़्त एक बाप के दिल पर क्या गुज़रती है, यह शौक़त अली के ज़रिए दिखाया गया है।

मेरे ख़याल से इस मुल्क के हर नौजवान खासकर मोमिनों को यह नॉवेल ज़रूर पढ़ना चाहिए। इससे मजहब, जेहाद, इंसानियत जैसे मुद्दों पर उनकी समझ का दायरा बढ़ेगा और वे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।

आख़िर में यही कहना चाहूंगा कि कुछ लोगों को उर्दू अल्फ़ाज़ समझने में दिक्कत पेश आ रही होगी। उनके लिए नॉवेल के आख़िर में 'अ' से लेकर 'अः' तक और 'क' से लेकर 'ज्ञ' तक की हर्फ़ों की कैटेगरी बनाकर या फिर पेज नंबर लिखते हुए उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ और उनके हिन्दी मायने लिख देने चाहिए थे जैसा कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी के नॉवेल 'हीरा फेरी' में किया गया है।

'ट्रेजडी गर्ल' की समीक्षा भी जल्द ही दूंगा....
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                 समीक्षा-
                              अजीत कुमार शर्मा

1 comment:

  1. वाह अजित जी कमल की समीक्षा लिखी आपने

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