Tuesday 27 November 2018

बानरस टाॅकिज- सत्य व्यास

बनारस टाॅकिज- सत्य व्यास
समीक्षक- बबलु जाखड़
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सत्य व्यास द्वारा लिखित  *बनारस टॉकीज़* पढ़कर कुछ अजीब सा ही लगा।
बहुचर्चित होने के बावजूद ये कहा जाए तो ठीक ही होगा कि उपन्यास सामान्य सा ही था, ना कुछ स्पेशल था, ना ज्यादा सस्पेन्स, कुलमिलाकर ऐसा कथानक जिसको पढ़ा तो जा सकता है पर तारीफ के पूल नही बांधे जा सकते, बेशर्ते की उपन्यास में केवल 179 पेज ही होते।

आखिर के 13 पेज में कहानी में कुछ ट्विस्ट बनता है पर वो बनता ही है।
एक ऐसी कहानी जिसमे कोई सस्पेंस नहीं, चुहलबाज़ी भी नहीं, ना कोई हार्ट टचिंग इवेंट, बस बकैती कुछ कुछ है,
कई जगह संवाद भी खूब लंबे व वक्त खाउ ही लगे।
फिर भी ऐसा उपन्यास जिसको पढ़ा जा सकता है, पैसा वसूल हो जाये।
पर जो लोग ऐसा उपन्यास पढ़ने के तमनाई है जो कुछ विशेष हो, कुछ हटकर हो, वो यहां चाहे अपना समय खराब ना करें।
गालियों का भरपूर प्रयोग हुआ है।
फिर भी अच्छा है।

Sunday 18 November 2018

प्रेतों का निर्माता- वेदप्रकाश कंबोज

प्रेतों का निर्माता- वेदप्रकाश कंबोज,
समीक्षा- शिखा अग्रवाल, दिल्ली।
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         सबसे पहले तो यही कहना चाहूंगी कि मुझे समीक्षा लिखनी नहीं आती खासकर कम शब्दों में तो बिल्कुल नहीं, यही कारण है कि नावेल पढे 6 हफ्ते हो गए लेकिन अभी तक नहीं दी, अब प्रवीण आजाद जी के कहने पर निष्पक्ष समीक्षा लिखने की कोशिश की है।
         मैंने वेदप्रकाश शर्मा जी के नावेल पढकर अपने पढने की शुरुआत की थी और यही समझती थी कि विजय विकास उनके मौलिक पात्र है, ये तो यही आकर पता लगा कि विजय,अलफंसे काम्बोज जी का पात्र है
     सबसे पहले बात लेखकीय कि तो उसे पड़कर आंखे नम हो गयी, पैसे वही वसूल हो गए, उसमे सर ने ओमप्रकाश शर्मा जी, जवाहर चौधरी जी जैसी हस्तियों के बारे में अपने विचार भी बताए है, उसपे पुराना कवर पेज तो सोने पे सुहागा ही था, ये नावेल 1974 में आया था इसलिए विश्वास करना ही मुश्किल लगा कि उस समय सर मेडिकल साइंस का ऐसा विवरण कैसे कर सके, उस समय इंटरनेट जैसी चीजों का कोई वजूद भी नही था तब माइड चेंजिंग का बिल्कुल नया कांसेप्ट इस नावेल में पड़ने को मिला जो सर की अभूतपूर्व कल्पनाशीलता तो दर्शाता है, विजय, अल्फांसो,   गिल्बर्ट, चीनीचोर, तातारी, कबाड़ी, बन्दर(धनुषटन्कार)और सिंगही जैसे बहुत किरदार पढने को मिले, विजय, कबाड़ी, तातारी की झकझ भी कमाल की है जिन्हें पढकर बरबस ही हँसी आ जाती है, मेरे जैसे नए पाठक को भी जिन्होंने पहले इनका कोई भी नावेल नहीं पढा, नावेल पड़कर पात्रों को समझने में कोई परेशानी नहीं होती, निसन्देह ये नावेल अपने समय का एक मास्टरपीस रहा होगा इसमे कोई दो राय नहीं है।
       रही बात कुछ कमियों की तो मुझे नावेल का साइज कुछ बड़ा लगा, हमें नावेल एक स्टैण्डर्ड साइज में पढने की आदत हो गयी है, इसलिए ये नावेल हाथ मे लेकर कुछ अलग लगा, दूसरी और सबसे बड़ी बात प्रूफ रीडिंग बिल्कुल बेकार थी, बहुत बार ऐसा हुआ कि एक दो शब्द नहीं बल्कि पूरी की पूरी लाइन ही गायब हो गयी, लेकिन शुक्र था कि पढने पे समझ आ रहा था कि दूसरे ने क्या कहा होगा और उसका कहानी पे कोई फर्क नही पड़ रहा था।
   सर को ऐसी रचना देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और यही उम्मीद है कि आगे भी और जल्द ही हमे ऐसी ही दुर्लभ रचनाये पढने को मिलेंगी।
भूल चूक की माफी के साथ।
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उपन्यास- प्रेतों का निर्माता ।
लेखक- वेदप्रकाश कंबोज
प्रकाशक- सूरज पॉकेट बुक्स- मुंबई
समीक्षक- शिखा अग्रवाल, शाहदरा, दिल्ली

ध्यान दें- इस उपन्यास के सूरज पॉकेट बुक्स के प्रथम संस्करण में ही शाब्दिक अशुद्धियाँ हैं‌, अन्य में नहीं ।


Friday 9 November 2018

डार्क नाइट- संदीप नाय्यर


डार्क नाइट- संदीप नाय्यर





समीक्षक- दिलीप कुमार



डार्क नाइट- संदीप नाय्यर
समीक्षा- दिलीप कुमार
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डार्क नाईट पढ़ ली, कल देर रात पढ़ी, कबीर, काम,माया, प्रिया, नेहा और मीरा की कहानी ,सबसे पहले भाषा पर आते हैं ,लेखक ने जिस वर्ग को टारगेट करके कहानी लिखी थी उसे रोमन से कोई परहेज़ नहीं है लेकिन फिर भी यदि लेखक ने देवनागरी को चुना है तो ज़ाहिर है उन्हें अपनी मिट्टी और लोगों से लगाव होगा, तो भाषा के मोर्चे पर या तो अल्ट्रा मॉडर्न भाषा है या जयशंकर प्रसाद के जमाने की भाषा जैसे स्थूल, अमूर्त जैसे दुरूह शब्दो का बहुतायत प्रयोग,हिंदुस्तानी जुबान जो कि बहुतायत उर्दू शब्दों से भरी हो उसमें एक मुस्लिम युवक का इस भाषा मे कुछ ना बोलना काफी खटकता है। लेखक जिस भाषा में संवाद करते हैं वही लिख देते तो बेहतर होता जैसे धनिया की पत्ती सब्ज़ी में सुगंध भरती है वैसे ही भाषा की सुगंध नदारद है। शब्दों की सब्ज़ी तो बनी अच्छी मगर सुगंध नदारद।  अब मेरी समझ से ये परे है कि लंदन का बैकग्राउंड लेखक ने क्यों रखा जब कहानी से अंग्रेज़ ही गायब हैं पब, बार, तो अब हर शहर में है। अब कबीर ये नायक है वो ना तो मजबूत है ना कमजोर,उसकी पिलपिलाये व्यक्तिव का कोई जस्टिफिकेशन नहीं है कि क्या बचपन की कोई घटना, माता पिता का अलगाव या विभिन्न मजहब से होना कोई मुद्दा तो नहीं है वो वजह नदारद है ।माँ -बाप का विभिन्न मजहब का होना क्या कोई मुद्दा नहीं है और इस मजहबी जहराब जूझ रहे लंदन में हिकमा, नेहा, प्रिया, माया का किसी का कबीर का मज़हब ना पूछना हैरान करता है ,लेखक इस मुद्दे से जूझने से बचता रहा।इस मुद्दे को लंदन में भी नजरअंदाज करना नामुमकिन है। नेहा की खुदकुशी अविश्वसनीय है जिस लड़के से उसके कई बार जिस्मानी संबंध रहे हों उसका सिर्फ एक बार और जिस्मानी संबंध पर खुदकुशी क्यों, पवित्रता, कौमार्यता की दुहाई तो थी नहीं फिर कबीर का प्रेम उसके जीवन में दस्तक दे रहा था, फ़िर इतनी पढ़ी लिखी और शराब और संसर्ग प्रिय लड़की की खुदकुशी थोड़ा कचोटती है।
           कबीर की अपनी कोई बुद्धि नहीं, ईगो नहीं, स्टैंड नहीं उसके जीवन की लड़कियां फुटबॉल की तरह उससे खेलती हैं कभी वो किसी के आगोश में है तो कभी किसी के और वो वूमेनाइजर भी नही है ये बात समझ में नहीं आती।नेपथ्य में एक भारतीय मां है जो अपने लड़के का हाल खबर कभी नहीं लेती और ना कभी लड़का ही मां की सुधि लेता है ।  डार्क नाईट इस बीमारी का दुख ही नहीं मनाया लेखक ने,भारतीय साहित्य का प्राण तत्व विरह है, कैसा प्रेम जब नेहा के दुख में कबीर की आंखे नहीं रोई,उस अपराध बोध में उसने जीने की इच्छा को समाप्त नहीं किया और खुद को सजा ना दी तो कैसा इश्क़ साहेब।इश्क़ की इंतेहा तब होती जब वो नेहा के गम के सबब हर लड़की को ठुकराता मगर कबीर साहब का गम बियर के झाग जैसा निकला, दूसरी बात महबूब का जिनां करने वाले शख्स को कबीर द्वारा सजा ना देने का प्रयास और कुछ भी ना करना थोड़ा खटकता है ,पुरूषार्थ नाम की भी एक चीज होती है जो सिर्फ टेस्टोस्टेरोन तक महदूद नहीं रहती। निश्छल प्रेम नाम जैसा तो कुछ दिखा ही नहीं, पोर्न का विकल्प होता है साहित्य, प्रेम के डिटेल वर्णन में कहीं नहीं आंसू भी छलके,ना कोई जार जार रोया ना कोई मिलकर बाग बाग हो गया, पाठक दैहिक वर्णन से उत्तेजित तो हो सकता है आनंदित नहीं।
       लेखक महोदय पढ़कर आनंद के अतिरेक आंखे यदि गीली ना हो जाएं तो उस कहानी से पाठक कैसे कनेक्ट हो सकता है, मैं कबीर के अनिर्णय से खीझता हूँ, नेहा की मौत पर नहीं रोता, एक बात और विवाह से पूर्व लिव इन में रहने वाली आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर माया और प्रिया से कबीर एक साथ क्यों नहीं निभा सकता था ,विवाह जैसी कोई बात नहीं थी कबीर कमाता भी था फिर दो गर्लफ्रैंडस क्यों नहीं रख सकता जब इतनी ओपन सोसाइटी थी।क्लाइमेक्स पर बात करते हैं मंदी इस तरह अचानक नहीं आती जितनी मेरी दुनिया भर के वित्तीय बाजारों की समझ है उसमें फाइनेंसियल मार्किट में काम करने वाले लोग पहले ही समझ जाते हैं और अपना पैसा निकाल लेते हैं ,माना प्रिया चोटिल थी मगर फ्लैट पर मोबाइल से दीन दुनिया की खबर मिलती रहती। प्रिया की फर्म डूब गई, मंदी आ गई तो भी फाइनेंस में ह्यूमन माइंड ही असेट होता है, रोजी रोटी कमायी जा सकती थी अनाथ रही थी रईसजादी नहीं कहीं भी जी खा सकती थी। मंदी में महबूब नहीं बेचे जाते लेखक साहब ।साहित्य हो,लुग्दी साहित्य हो या नई वाली हिंदी उसकी पहली शर्त पठनीयता है जो कि इस पुस्तक में आधे हिस्से के बाद आती है, समरसिद्धा जैसी कृति के लेखक की रचना पर
जारे जागे सुभाउ हमारा
अनभल देखि ना जाइ तुहारा।
संदीप नय्यर साहब को इस सर्जना हेतु बधाई और साधुवाद,,पुस्तक की सफलता हेतु शुभकामनाएं,,कहा,सुना माफ संदीप साहब,,,इति शुभम भवति.
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पुस्तक- डार्क नाइट
लेखक- संदीप नाय्यर
समीक्षक- दिलीप कुमार