Friday 29 December 2017

ट्रेजडी गर्ल- एम इकराम फरीदी

ट्रेजडी गर्ल- एम. इकराम फरीदी। उपन्यास समीक्षा।

मो. इकराम फरीदी जी लिखित “ट्रेजडी गर्ल” धीरज पॉकेट बुक्स, मेरठ द्वारा प्रकाशित है।

ट्रेजडी का अर्थ है कोई त्रासदी या दुःखद घटना। उपन्यास का शीर्षक बताता है कि कहानी ऐसी लड़की पर है जिसके साथ कोई त्रासदी घटित होती है। हिंदी उपन्यासों का शीर्षक भी हिंदी ही होना चाहिए। हिंदी या हिंदी में प्रयुक्त उर्दू शब्दों की सहायता से कईं श्रेष्ठ शीर्षक बन सकते हैं।

शीर्षक, मुख्य आवरण पर एक ओर देखती हुई लड़की का चित्र जिसके बाल बिखरे हुए हैं, तथा आवरण की रंग सज्जा में में बोझिल रंगों की प्रधानता, दुःख द्योतक लगते हैं।

सच कहूँ तो ये उपन्यास विशुद्ध जासूसी, रहस्य व रोमांच विधा के रसिक पाठकों के लिए है ही नहीं। कहानी में जासूसी के तत्व तो हैं, परंतु अंत तक कोई बड़ा रहस्योद्घाटन नहीं है। यह एक विशुद्ध त्रासदी/दुःख कथा है। हाँ, त्रासदी या दुःख कथाएं पसंद करने वालों के लिए इसमें भरपूर मसाला है।

कहानी एक लड़की सुरभि की है जो अपने कॉलेज टाइम में अपनी एक दोस्त युमि की सलाह पर वो घृणित पेशा अपना लेती है जिसमें रोज़ इज़्जत का सौदा करना होता है। क्योंकि पिता के देहांत के बाद आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी और उसे अपने भाई को इंजीनियर बनवाना था। घर वालों को यह बता कर की उसकी एक दोस्त ने उधार दिए हैं वह अपने ‘धंधे’ की कमाई घर में सौंपती है।
परंतु वह ये सब ‘सीमित रूप’ में करती है, भाई की पढ़ाई पूरी होने के तथा उसके नौकरी लगने के बाद खुद के लिए अमीर घर का अच्छा रिश्ता मिलते ही शादी कर एक पतिव्रता के रूप में नए जीवन की शुरुआत कर देती है।
उसे उस धंधे के सौदागरों से बचा कर तथा उस दलदल से निकाल कर घर बसाने में उसका एक दोस्त अजय मदद करता है जो उससे प्यार भी करता है। हालांकि सुरभि भी अजय से प्यार करती थी, पर अजय के गरीब होने, अमीर घर का रिश्ता मिलने तथा खुद को उस धंधे के कारण अजय के लायक न समझ कर वह उस अमीर घर में शादी कर लेती है। अजय फिर भी उसका मददगार तथा शुभचिंतक बना रहता है।
पर नियति को जैसे उसकी खुशहाल वैवाहिक ज़िन्दगी बर्दाश्त न हुई। उसके बीते कल का एक ‘ग्राहक’ संदीप उसकी जिंदगी में पुनः प्रकट हो जाता है और उसकी कुछ पुरानी ‘वीडियो क्लिप्स’ के आधार पर उसके व उसके पति के भयादोहन (blackmailing) का प्रयास करता है। उसका पति एक जासूस सुभाषचंद कौशिक की मदद लेता है। यहां फिर उसका दोस्त व प्रेमी अजय उसका संकटमोचक बनता है।
परंतु अजय के जीवन में ही ऐसी त्रासदी घटित हो जाती है जिससे वही उसके खिलाफ हो जाता है।
क्या अजय अपने प्यार को उसके अतीत से बचा पाने में सफल होता है?
अजय की ज़िंदगी में क्या ऐसी त्रासदी घटित हुई कि वही सुरभि के खिलाफ जाने को विवश हुआ?
क्या अजय की खिलाफत सुरभि की ज़िंदगी को बर्बाद कर देती है?
क्या अजय फिर सुरभि का साथ देता है उसे मुसीबत से निकलने के लिए?
क्या सुरभि को अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी बचाने के लिए फिर कोई समझौता करना पड़ता है?
क्या सुरभि अंततः अपनी शादीशुदा जिंदगी को बचा पाने में सफल होती है?
यही सब प्रश्न पाठक की भावनाएं उद्वेलित रखते हैं एवं प्रश्नों का उत्तर पाठक को अंत तक एक-एक कर मिलता है।

फरीदी जी लेखन कला में अपनी दक्षता पहले ही साबित कर चुके हैं। मैंने पहले ‘ए TEरेरिस्ट’ और ‘गुलाबी अपराध’ पढ़े फिर यह ‘ट्रेजडी गर्ल’ पढ़ा। मैं ‘ए TEरेरिस्ट’ और ‘गुलाबी अपराध’ के कारण पहले ही उनका प्रशंसक बन चुका था और उनकी लेखन कला से प्रभावित था। ‘ट्रेजडी गर्ल’ जैसे कथानक फरीदी जी की शैली के उपयुक्त नहीं हैं।

ऐसा नहीं है कि पुरुष ही स्त्री पर दबाव बना सकता है और ऐसा कोई अधिकार उसे पुरुष पर हासिल नहीं है। कईं ऐसी औरतें हैं जो अपने औरत होने का व कानून में मौजूद अनुकूल प्रावधानों का फायदा उठा कर पुरुषों का जीना हराम कर देती हैं।

कोई औरत स्वेच्छा से या किसी लालच के वशीभूत होकर गलत कदम उठा ले, तो ये नहीं कहा जा सकता कि समाज में उसके विरोध की गुंजाइश नहीं है। भाई को इंजीनियर बना कर उसका व घर का स्तर ऊंचा करने के लिए कोई भी ग़ैरकानूनी या अनैतिक काम करना, लालच ही है। वरना कम या बिना पढ़े-लिखे लोग भी सुकून और इज़्ज़त से ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, उनकी भी बहन-बेटियों की शादियां अच्छे घरों में होती हैं। धन सम्पन्न घर ही अच्छा हो यह ज़रूरी नहीं।

अमीर पति छोड़ न दे इसलिए फिर अपनी इज़्ज़त से समझौता, ये भी लालच ही है। ऐसी औरतों से वो औरतें अच्छी जो मेहनत-मजदूरी कर लेंगी, बस-रिक्शा चला लेंगी या कोई भी इज़्ज़तदार काम कर लेंगी पर किसी भी प्रकार से इज़्ज़त से समझौता नहीं करेंगी, ऐसी औरतों के लिए किसी के सहारे की मोहताज होना तो बहुत दूर की बात है।

हर कोई, चाहे स्त्री हो या पुरुष, किसी न किसी रूप में अत्याचार का शिकार होता रहता है। पुरुषों पर हुए अत्याचारों को बस प्रचार नहीं मिलता इसलिए समाज इन अत्याचारों से अनभिज्ञ रहता है।

उपरोक्त बातों के आधार पर मैं कहना चाहूंगा कि कहानी तथ्यात्मक एवं तार्किक दृष्टि से बहुत कमजोर है।

संवाद अच्छे हैं, कहानी के अनुरूप हैं तथा कहानी की गति को धीमा नहीं करते। अजय तथा संदीप के बीच के, तथा संदीप के अन्य किरदारों से संवाद मनोरंजक हैं। कहने की गति जासूसी-थ्रिलर उपन्यासों जैसी है। दृश्य, प्रसंग व चरित्र वर्णन सजीव हैं, तथा संवादों की लंबाई यथोचित है।

कहानी का अंत उचित है, इससे बेहतर अंत नहीं हो सकता था। परंतु अंत होने के पूर्व के कुछ प्रसंग अनावश्यक लगे।

उपन्यास में जासूस सुभाषचंद कौशिक का किरदार है, उनकी जासूसी भी है, परंतु कहानी के अंत तक उन पर कुछ खास फोकस नहीं किया गया है। ऐसे पाठक जिन्हें त्रासदी/दुःख कथाएं पढ़ना पसंद है, उन्हें यह उपन्यास पसंद आ सकता है।

मैं उपन्यास को 5/10 अंक देता हूँ। 🙏

- संदीप नाईक
इंदौर (म. प्र.)

Saturday 16 December 2017

ए TEरेरिस्ट- एम. इकराम फरीदी

ए TEरेरिस्ट
लेखक : एम. इकराम फरीदी(Md Ikram Faridi)
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फरीदी भाई के अब तक पढ़े गए उपन्यासों में मैं इसे 'दी बेस्ट' का ख़िताब देने की सोच रहा हूं। फिर ख़याल आता है कि ऐसा करना कहीं-न-कहीं बाकी उपन्यासों के साथ थोड़ी नाइंसाफ़ी हो जाएगी। वजह ये कि पहले शाया हुए नॉवेल्स अलग-अलग मौजू पर लिखे गए हैं और फरीदी साहब ने अपनी तरफ़ से उन्हें उनकी ज़मीन पर मुकम्मल साफ़गोई से काफ़ी मेहनत करके लिखा है और अपनी तरफ़ से उनको दी बेस्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि मैं भी 'ए TEरेरिस्ट' को फरीदी साहब के अब तक शाया हुए नॉवेल्स में दी बेस्ट कहना चाहते हुए भी नहीं कह रहा हूं।

'ए TEरेरिस्ट' किस्सा है नए दौर के उन कमउम्र मोमिन नौजवानों के ऊपर जो एक ख़ास मजहब की ग़लत तरीक़े से तफसीलबयानी के जाल में फंसकर जेहाद का ग़लत मतलब समझ लेते हैं। ये दास्तान है उन मौलानाओं की भी, जो नहीं जानते कि उन्हें उनके ही दीन और मजहब को ग़लत तरीक़े से तबलीग करने के लिए कैसी शातिराना चालें चली जाती हैं जिसमें सियासी ताकतें और दूसरे मुल्क वाले भी शामिल हैं। ये किस्सा है मुल्क में रहने वाले उन अमनपसंद मोमिनों का भी, जो किसी भी कीमत पर अपने मुल्क़ में नफ़रत और दहशतगर्दी का आलम नहीं चाहते और चैन-ओ-सुकून की ज़िन्दगी के हिमायती हैं, जो अपने साथ-साथ दूसरों की ज़िन्दगी को भी महफ़ूज़ देखना चाहते हैं और नफ़रत फैलाने वाली सियासी चालों को बख़ूबी समझकर उसका मुक़ाबला भी करते हैं क्योंकि उनके भीतर भी हुब्बुल वतनी का लहू गर्दिश करता है।

पूरा नॉवेल पैसा वसूल है ख़ासकर मौलाना इज़हार की तक़रीर...वाह वाह, पूछिए मत..! पाई पाई वसूल हो गए। बेहतरीन लुत्फ़! मैं तो जितना पढ़ता जा रहा था उतनी ही हँसी आ रही थी और ताज्जुब भी हो रहा था कि क्या ये वाकया एक ऐसा नॉवेलनिगार लिख सकता है जो ख़ुद मोमिन जमात से ताल्लुक रखता हो? लेकिन हकीकत यही थी। जब-जब मौलाना की तकरीर हुई तब-तब मैं लुत्फ़अन्दोज़ होता रहा और मख़सूस हर्फ़ों और सारे जुमलों का पूरा-पूरा लुत्फ़ लिया। हाँ, हुक्कुल अल्लाह और हुक्कुल इबाद- ये दो चीज़ें मैं नहीं जानता था। इस नॉवेल के ज़रिए मेरी इस जानकारी में इजाफ़ा हुआ।

कहानी में विजय-विकास की मौजूदगी है लेकिन विकास की खूंखारता वैसी नहीं दिखाई गई है जैसी वेद प्रकाश शर्मा जी के नॉवेल्स में हुआ करती थी, यह देखकर काफ़ी अच्छा लगा। विजय को पूरा स्पेस मिला है और वह अपनी सदाबहार टोन में है। उसकी ऊटपटांग हरकतें वैसी ही हैं लेकिन यह सबको मालूम है कि ऐसी ही ऊटपटांग बातें करने वाला और हमेशा अपने निक़ाह कराने की बात करने वाला यह शख़्स बहुत ही टैलेंटेड और माइंडेड है और हमेशा ही पर्दे के पीछे रहकर बड़े-बड़े कामों को अंजाम देता रहता है और इस बात की परवाह भी नहीं करता कि उसके काम का उसे क्रेडिट भी मिले।

भारत के ख़िलाफ़ दुश्मन मुल्क किस तरह यहाँ की सियासी पार्टियों के साथ मिलकर इसे बर्बाद करने की साजिशें बुनते हैं या बुन सकते हैं वह भी बख़ूबी दिखाया गया है। कहानी में जगह-जगह एहसास ही गहराई को शिद्दत से रचा गया है। इतने सलीके से एहसासों की गहराई को दिखाया गया है कि किताब को बिना पूरा किए छोड़ने का मन नहीं होता।

मुखबिर जब अतहर के कमरे की तलाशी लेने जाता है उस सीन से लेकर नॉवेल की रफ़्तार बहुत तेज़ हो जाती है। नयागंज इलाके की गली का मुठभेड़, अतहर की आतंकी वारदात, पुलिस बल से लड़ाई, ब्लैक कमांडो का ऑपरेशन बहुत हैरतअंगेज तरीके से लिखे गए हैं। मौलाना इज़हार का जो अंजाम दिखाया गया है वह बहुत दर्दनाक है, उसे आसान तरीके से भी किया जा सकता था। आख़िर वह भी एक इंसान ही तो है- जन्नत और बहत्तर हूरों के लालच में उसने अपना दिमाग़ ख़राब भले ही कर लिया हो लेकिन होश वाले तो कम-से-कम वैसी दरिंदगी न दिखाएँ। हाँ, देवेंद्र प्रताप और मौलाना इज़हार- इन दोनों का एक ही अंजाम एक साथ वैसा ही दिखाना चाहिए था जैसा कि देवेंद्र प्रताप का दिखाया गया है। ख़ैर, ये मेरी सोच है।

मजहब के नाम पर दहशतगर्दी, अख़लाक़ वाकया, अवॉर्ड वापसी, जे एन यू की घटना, भारत तेरे टुकड़े होंगे....इन सब मुद्दों का जिस मुकम्मल तरीके से ज़िक्र करते हुए हालातों की तफसीलबयानी की गई है उससे फरीदी साहब की आलिम समझ और वाकयों को समझने की लियाकत पता चलती है।

आख़िर में जब मेहविश रोते हुए अपने भाई को सरेंडर करने को कहती है और भाई की सलामती के लिए अपनी ख़्वाहिशों की क़ुर्बानी देने को तैयार हो जाती है, वह वाक़या दिल को छू जाता है। जगह-जगह ऐसे नाज़ुक एहसास रूह को झकझोर देते हैं। मेहविश का कॉलेज प्रोग्राम भी कुछ ऐसा ही रहता है। उस वक़्त एक बाप के दिल पर क्या गुज़रती है, यह शौक़त अली के ज़रिए दिखाया गया है।

मेरे ख़याल से इस मुल्क के हर नौजवान खासकर मोमिनों को यह नॉवेल ज़रूर पढ़ना चाहिए। इससे मजहब, जेहाद, इंसानियत जैसे मुद्दों पर उनकी समझ का दायरा बढ़ेगा और वे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।

आख़िर में यही कहना चाहूंगा कि कुछ लोगों को उर्दू अल्फ़ाज़ समझने में दिक्कत पेश आ रही होगी। उनके लिए नॉवेल के आख़िर में 'अ' से लेकर 'अः' तक और 'क' से लेकर 'ज्ञ' तक की हर्फ़ों की कैटेगरी बनाकर या फिर पेज नंबर लिखते हुए उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ और उनके हिन्दी मायने लिख देने चाहिए थे जैसा कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी के नॉवेल 'हीरा फेरी' में किया गया है।

'ट्रेजडी गर्ल' की समीक्षा भी जल्द ही दूंगा....
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                 समीक्षा-
                              अजीत कुमार शर्मा