Wednesday 17 January 2018

वीर की विजय यात्रा- दिनेश चारण

वीर की विजय यात्रा- दिनेश चारण

फैंटेसी, हिस्टोरिकल फिक्शन ने प्रगति करते करते इतनी तरक्की कर ली है कि कहीं न कहीं साहित्य की मुख्य धारा को रिप्लेस ही कर दिया है।नए नए लेखक जुड़ते जाते हैं और नए नए कीर्तिमान गढ़ते जाते हैं।इन्हीं लोगों में से अपने पहले उपन्यास के साथ दस्तक दी है नए नवेले लेखक दिनेश चारण ने।लेखक को उनकी उपलब्धियों के लिए बधाई।
      
कथानक-कथानक सरल है और रोचक है।पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है।लेखक ने काल्पनिक स्थान,पात्रों के साथ कहानी का अच्छा तानाबाना बुना है।130 पेज में फैले इस कथानक में एक और विशेषता है वह यह कि ये बच्चों के साथ साथ बड़ों के पढ़ने के लिए भी है।परंतु इस उपन्यास में बड़ों वाली पठनीयता बहुत पीछे छूट जाती है और आज के परिपेक्ष्य में कथानक के स्तर का विश्लेषण करने के बाद यह बच्चों वाली ही पुस्तक प्रतीत होती है।बच्चों के लिए यह जितनी रोचक हो सकती है उतना बड़ों के लिए नहीं।

भाषा-भाषाई तौर पर भी लेखक उन्नीस नजर आते हैं।कहानी के काल,क्रम आदि को देखते हुए भाषा-शैली पूर्णतया सटीक नहीं कही जा सकती।लेखक कठिन शब्दों से बचे हैं और समझ में आने योग्य लिखने का यथासंभव प्रयास किया है।यह एक अच्छी बात है।

पात्र-पात्रों की भरमार नहीं है एवं सभी पात्रों के साथ पूरा पूरा न्याय हुआ है।वीरसेन जो कि कहानी का मुख्य नायक है वह पूरे उपन्यास में छाया हुआ है।एक अच्छे मित्र की तरह राजकुमार प्रद्युम्न में उसका बखूबी साथ निभाया है।इसके अतिरिक्त बिलाल खान,कासम खान आदि भी मुख्य पात्र हैं जिन्होंने कहानी का भार उठाया है।सहायक पत्रों की भी अच्छी भूमिका है।

संपादकीय पक्ष-इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमजोरी इसका संपादकीय पक्ष ही है।पूरे उपन्यास में गिने चुने पृष्ठों को छोड़ दें तो हर पृष्ठ में वर्तनी,विराम चिह्न आदि में ढेरों गलतियाँ हैं।सूरज पॉकेट बुक्स जैसे तेजी से उभर रहे प्रकाशन संस्थान को अपना संपादकीय पक्ष काफी मजबूत करने की आवश्यकता है।

अन्य-पृष्ठ 48 और 49 को ध्यान से पढ़ा जाय तो कहीं भी दोनों गुप्तचरों को शंकर अपना नाम नहीं बताता और यह उन सबों की पहली मुलाकात भी है जहाँ दोनों गुप्तर शंकर से अपरिचित होते हैं  एवं शंकर उन दोनों से।परंतु फिर भी एक बार गुप्तचर शंकर को उसके नाम से बुलाते हैं।इसके अतिरिक्त ध्यान देने वाली बात यह भी है कि दो जगहों पर लेखक ने आजकल प्रचलित बिहारी भाषा का प्रयोग किया है जबकि उस समय इस भाषा का विकास संभवतः नहीं हुआ था।

निष्कर्ष यह कि इस उपन्यास को एक बार पढ़कर देखा जा सकता है।आप निराश नहीं होंगे।संपादक पक्ष मजबूत किया जा सकता था था।साथ ही कथानक को 10-15 पेज कम भी किया जा सकता था।उसमें कहानी ज्यादा कसी हुई लगती।लेखक की शुरुआती रचना है,यह बात मुखरित होती रहती है।कुछ बिंदुओं पर लेखक को परिपक्व होने की आवश्यकता है।लेखक से उम्मीदें बहुत हैं।हाँ कवर काफी उम्दा बन पड़ा है उसके लिए पूरी टीम बधाई के पात्र हैं।पेज की क्वालिटी भी बहुत अच्छी है।इसको देखते हुए मूल्य वाजिब कहा जा सकता है।उम्मीद है इसके अगले प्रकाशन में संपादक वर्तनी आदि को कम करने का प्रयास करेंगे।लेखक को अपने अगले किताब के लिए शुभकामनाएं।।

समीक्षा
अभिषेक कुमार

Sunday 14 January 2018

आहुति- कुशवाहा कांत

आहुति- कुशवाहा कांत
 
सामाजिक उपन्यासकार कुशवाहा कांत का उपन्यास आहुति सम्राट अशोक के जीवन का एक काल्पनिक पक्ष हमारे सामने प्रस्तुत करता है।
   सम्राट अशोक वृद्धावस्था में अपनी श्रेष्ठ परिचारिका से शादी कर लेते हैं। जवान परिचारिका और वृद्ध राजा का मिलन तन का ही होता है मन का नहीं।
    सम्राट अशोक के अस्वस्थ होने पर सारा शासन कार्य परिचारिका के हाथ में आने पर वह अपनी कुटिल प्रवृति जाहिर कर देती है और जिसकी सजा अशोक के पुत्र कुणाल को भुगतनी पङती है।
  कुणाल की श्रत्राणी पत्नी कांचन इस षडयंत्र का पता चलाकर विद्रोह करती है और अंत में अन्याय का पर्दाफाश करती है।

यह उपन्यास बहुत ही रोचक है। पाठक एक बार आरम्भ करने पर समापन करके ही उठता है। इसकी कहानी काल्पनिक होकर भी सत्य के नजदीक है।

उपन्यास- आहुति
लेखक- कुशवाहा कांत

लेखक की अन्य जानकारी यहाँ उपलब्ध है-
http://sahityadesh.blogspot.in/search/label/कुशवाहा%20कांत?m=0

Thursday 11 January 2018

तुरूप का इक्का- गजाला

जासूस गजाला प्रियदर्शी का कारनामा
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    गजाला जी का उपन्यास तुरूप का इक्का पढने को मिला, यह उपन्यास एक एक्शन उपन्यास है। एक्शन उपन्यास पढने वालों को काफी पसंद आयेगा।
यह गजाला जी का पहला उपन्यास है
    
   उपन्यास की कहानी की बात करें तो यह कहानी इजराइल और फिलिस्तीन के मध्य चल रहे संघर्ष पर आधारित है। जहाँ दोनों देश एक- दूसरे पर अपनी विजय दर्शाने के लिए संघर्ष करते हैं तो वहीं कुछ निर्दोष इस संघर्ष की बलि चढ जाते हैं।
   ऐसे ही एक निर्दोष को बचाने के लिए गजाला प्रियदर्शी पहुंच जाती है इजराइल। लेकिन वहाँ फंस जाती है सत्य और असत्य के बीच।
   
जासूस गजाला प्रियदर्शी फिलिस्तीन देश में एक लङके को बचाने के लिए जाती है पर वहाँ जाकर खुद फंस जाती है और वहाँ एक छोटी सी बच्ची अदिया भी मिलती जिसे बचाने के लिए गजाला दुश्मनों से भीङ जाती है और अंत में दुश्मनों को खत्म कर जीत जाती है।

पूरे उपन्यास में एक्शन दृश्यों की भरमार है, कई- कई जगह तो मारधाङ तीन- चार पृष्ठ तक लगातार चलती है। तीन सौ पृष्ठों के उपन्यास में से लगभग सौ पृष्ठ तो एक्शन से भरे हुये हैं।

   लेखिका के प्रथन उपन्यास को पढकर जहां उनकी प्रतिभा का पता चलता है वहीं कहानी के स्तर पर उपन्यास मध्यम स्तर तक भी बहुत कठिनता से पहुंचता है। उपन्यास को आवश्यकता से अधिक विस्तार देकर कहानी को और भी कमजोर कर दिया।
    हर पांच- दस पृष्ठ कर पश्चात पाठक को वही मारपीट वाले दृश्य पढने को मिलते हैं।
   उपन्यास बहुत ही अच्छा है, अच्छा उपन्यास पाठक को पसंद आयेगा। इसकी कहानी दो देशो पर आधारित है जो पढने वाले को अच्छी लगेगी।

प्रकाशक- रवि पॉकेट बुक्स- मेरठ