Monday 23 April 2018

रिवेंज- एम.इकराम फरीदी

रिवेंज- एम.इकराम फरीदी, समीक्षक- अमित वधवानी

रिवेंज रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित लेखक MD Md Ikram Faridi जी की कालक्रमानुसार गल्प साहित्य में पाँचवी रचना है। कवर सुंदर बन पड़ा है लुगदी उपन्यास होने के बावजूद  पेपर क्वालिटी बेहतरीन तथा प्रिंटिंग उत्कृष्ट है रिवेंज हर मुक़ाबले में MD Ikram Md Ikram Faridi जी की अब तक प्रकाशित रचनाओं से बेहतर बन पड़ी है।

               कहानी का कसाव, रहस्य, संवाद और मुख्य किरदारों खासकर उग्रसेन तथा मैना का चरित्र चित्रण तथा उनके बीच पनपता रोमांस उसपे उग्रसेन का शायराना अंदाज़ और मैना की ख़ूबसूरती का इतना सजीव और सुंदर वर्णन और इसके अलावा सोने पे सुहागा कहानी इतनी चुस्त और रेज़रफ्तार बन पड़ी है की पाठक इसे एक ही बैठक में पढ़े बिना रुक नहीं पायेंगे।

             रिवेंज को फरीदी साहब का अब तक का श्रेष्ठ लेखन कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होंगी, इस बात से मैं सहमत हूँ की क़ातिल को आसानी से पहचाना जा सकता है, इस नावेल के अंत पे अगर फरीदी साहब और थोड़ी मेहनत करते तो यह 5स्टार रेटिंग वाली मिस्ट्री बन सकती थी।

            उग्रसेन का किरदार मंत्रमुग्ध करता और जासूस कौशिक को भी पराभूत कर देने वाला बन पड़ा है उम्मीद है लेखक महोदय इसे आगे भी रिपीट करेंगे, सिर्फ कमजोर अंत की वजह से मेरी तरफ से इस(5स्टार रैंकिंग) मिस्ट्री को 4.5/5 स्टार्स।
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समीक्षा- अमित वधवानी

रिवेंज- एम. इकराम फरीदी

रिवेंज. - एम. इकराम फ़रीदी, समीक्षक- संदीप नाइक

श्री एम. इकराम फरीदी जी द्वारा लिखित “रिवेंज” रवि पॉकेट बुक्स, मेरठ द्वारा प्रकाशित है।

उपन्यास का मूल्य ₹80/- है, तथा उपन्यास कुल 254 पृष्ठों का है| इसमें आरम्भ के तथा लेखकीय के पृष्ठों को छोड़ दिया जाए तो उपन्यास का कथा भाग कुल 248 पृष्ठों का है।

उपन्यास का मुखपृष्ठ कलात्मक है तथा कथावस्तु का बोध करवाता है। मुखपृष्ठ पर, चाकू के फल में अपना प्रतिबिम्ब देख कर लिपिस्टिक लगाती हुई लड़की का चित्र है। शीर्षक ‘रिवेंज’ और ऐसे मुखपृष्ठ को देख कर यह सहज पता चलता है की कहानी किसी जवान लड़की द्वारा लिए जाने वाले प्रतिशोध (रिवेंज) पर आधारित है। कहने का तात्पर्य यह की मुखपृष्ठ तर्कसंगत, कलात्मक एवं आकर्षक है।

फरीदी जी ने लेखकीय मात्र दो पृष्ठों का लिख कर पाठकों को बोर होने से बचाया है। कम पर चुनिन्दा शब्दों में जो सटीक बात कही जा सकती है वह पूरा निबंध लिख देने पर भी नहीं कही जा सकती। मैं फरीदी जी से यहाँ पूर्णतया सहमत हूँ की किसी फनकार को उसके फन के इस्तेमाल का वातावरण मुहैया होना भी ईश्वर के ही बूते की बात है। पर मैं फरीदी जी से यहां थोड़ा असहमत हूँ की भविष्य में उनके द्वारा लिखे जाने वाले उपन्यासों में ‘द ओल्ड फोर्ट’ और ‘ए TEरेरिस्ट’ की टक्कर का एक भी न हो। क्योंकि लेखक तो अपना हर उपन्यास उतने ही समर्पण और लगन से लिखता है जितने समर्पण और लगन से उसने अपने पिछले उपन्यास लिखे थे, पर कौनसा उपन्यास ‘कालजयी रचना’ बन जाए ये वो स्वयं नहीं बता सकता। कहने का तात्पर्य ये की अभी तो फरीदी जी के कुल पांच ही उपन्यास आए हैं, अभी बहुत लंबा सफ़र तय करना है उन्हें, तो उनकी लेखन शक्ति की चरम सीमा अभी बाकी है।

रिवेंज में कथाकथन शैली उत्तम है, विशेष कर तेज रफ़्तार रहस्य-रोमांच से भरपूर उपन्यासों के लिए आदर्श है। फरीदी जी अपनी कल्पनाएं पाठक के मन में उभारने में सफल रहे। कहीं कोई ऐसा अनावश्यक विस्तृत वर्णन या सीन (दृष्य) नहीं है जो बोर करे या कहानी की गति को धीमा करे। न ही कहीं कोई शब्द, वाक्य या सन्दर्भ ही ऐसे हैं जिनको समझने में पाठक का ध्यान कहानी की मुख्यधारा से भंग होता हो।

एक विशेष बात ये की फरीदी जी ने सभी पात्रों के रंगरूप की विस्तृत व्याख्या करने में स्थान और समय व्यर्थ नहीं किया है, अधिकतर पात्रों के रंगरूप की व्याख्या कम पर सटीक शब्दों में कर शेष पाठक की कल्पनाशक्ति पर छोड़ दिया है। जैसे मोनू, चेतना, शैलेष, ज्योतिका, सुधीर और प्रेमवती के रंगरूप की व्याख्या उतने विस्तार से नहीं की गई है जितने विस्तार से जासूस सुभाषचंद कौशिक, इंस्पेक्टर उग्रसेन, इंस्पेक्टर अब्दुल करीम, मैना, प्रकाश, अंशु और तांत्रिक बाबाओं के रंगरूप की की गई है। मेरे विचार में वैसे भी पाठक की कल्पनाओं के लिए हर जगह शब्द मुहैया करवाने की आवश्यकता नहीं होती, कईं जगह माहौल को समझ कर पाठक ही अपनी कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल करे तो वो ज्यादा शीघ्रता से कल्पना कर आगे बढ़ सकता है। इससे किसी पात्र को समझने में पाठक के पढ़ने की लय और गति भी बाधित नहीं होती, और पाठक कहानी के बहाव के साथ बहता चला जाता है। यही ‘एक ही बैठक में पठनीय’ उपन्यासों की विशेषता होती है, जो की “रिवेंज” में है।

भाषा तथा शब्दों का चुनाव ऐसा है की पाठक कहानी में घटित होने वाली घटनाओं व कहानी के माहौल को महसूस कर सकता है। और यही पाठक के लिए सबसे आनंददायी होता है।

फरीदी जी ने अंशु के कथित भूत की आवाज को ‘पत्थर पर पत्ती की रगड़’ जैसा बताया है। कहने का तात्पर्य यह कि आवाजों तक को पाठक के मन में उभारने की मेहनत फरीदी जी ने की है। परंतु शब्दों का ये चुनाव ऐसा है कि हर कोई आसानी से इस आवाज की कल्पना नहीं कर सकता, विशेष कर तब जबकि उस आवाज को किसी के बोलने-हंसने  जैसा बताया गया हो।

तो, कहानी एक विधवा मैना के “रिवेंज” की है जो अपने पति प्रकाश व बेटे अंशु की मौत का बदला लेने की ठान लेती है। मैना मानती है कि उसके पति व बेटे का खून उसकी भौजाई ज्योतिका ने ही षड्यंत्र रच कर करवाया है, ताकि उसका परिवार न फले फूले और उसे संपत्ति से कोई हिस्सा न मिले।
मैना का यह दावा है कि उसकी भौजाई ज्योतिका ने प्रकाश की शादी न होने देने के लिए एक से एक षड्यंत्र रचे थे। फिर भी ज्योतिका अपने षड्यंत्रों में सफल नहीं हो पाई और मैना प्रकाश से शादी करके घर में आ गई। इस शादी से उन्हें एक बेटा भी हुआ, जिसका नाम अंशु था।
पर मैना के अनुसार, ज्योतिका किसी तरह प्रकाश व अंशु को मरवा देने में सफल हो जाती है।
कुछ समय बाद ज्योतिका के बेटे मोनू को मैना के बेटे अंशु का भूत दिखाई देता है, और अंशु का भूत ज्योतिका की बेटी चेतना को फोन कर बताता है कि उसके भाई मोनू की मौत हो जाएगी। इस पर ज्योतिका का परिवार पहले तांत्रिक बाबाओं की सहायता लेता है कि वे अंशु के भूत को भगा दें। फिर जान से मारने की धमकी होने के कारण वे पुलिस की सहायता लेते हैं, और पुलिस के रवैये से संतुष्ट न होने पर जासूस सुभाषचंद कौशिक की सहायता लेते हैं। इंस्पेक्टर उग्रसेन द्वारा पूछताछ किये जाने पर मैना मोनू की मौत का निश्चित दिन भी बता देती है, और चुनौती भी देती है कि रोक सको तो रोक लेना। परन्तु सबूतों के अभाव में इंस्पेक्टर उग्रसेन मैना के खिलाफ कुछ नहीं कर पाता।
पुलिस की कड़ी सुरक्षा के बावजूद मोनू मर जाता है, पुलिस और जासूस सुभाषचंद कौशिक को ढूंढे कोई क्लू नहीं मिलता। इस बार इंस्पेक्टर उग्रसेन मैना को गिरफ्तार तो करता है परन्तु फिर सबूतों के अभाव में उसे विवश होकर मैना को छोड़ना पड़ता है।
फिर कुछ दिनों बाद अंशु का भूत ज्योतिका को फोन कर उसकी बड़ी बेटी चेतना की मौत का निश्चित दिन बताता है। इस बार चेतना को सुरक्षा की दृष्टि से उस दिन थाने में ही रखने का निर्णय लिया जाता है।
अनजाने में मैना के प्यार में पड़ रहा शायरी का शौकीन इंस्पेक्टर उग्रसेन मैना से प्यार का इज़हार तो कर देता है परन्तु उसके सामने ये खूनी खेल रोक देने की शर्त भी रखता है। पर मैना नहीं मानती, और इंस्पेक्टर उग्रसेन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हुए मैना को चेतावनी देता है कि सबूत मिलते ही वह मैना को फांसी के फंदे पर झूलवा कर ही दम लेगा।
पर थाने पर कड़ी सुरक्षा में भी चेतना की मृत्यु हो जाती है। इस बार उन्हें चेतना की मृत्यु का कारण भी पता चल जाता है और कुछ क्लू भी मिल जाते हैं फिर भी वे क़ातिल तक पहुंचने के लिए काफी नहीं होते। मैना के खिलाफ भी ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता जिससे ये साबित हो पाए की वो ये सब खुद कर रही है या किसी से करवा रही है।
अब ज्योतिका के परिवार पर ये खतरा मंडराने लगता है कि मैना उसके पूरे परिवार को खत्म करके ही अपना ‘रिवेंज’ पूरा करेगी।
तो, पुलिस या जासूस सुभाषचंद कौशिक में से कौन सफल होता है क़ातिल को पकड़ने में?
क्या मैना के खिलाफ सबूत मिल पाते हैं?
क्या मैना अपना ‘रिवेंज’ पूरा कर पाती है?
इन्हीं सवालों के जवाब क्लाइमेक्स में मिलते हैं।

उपन्यास जबरदस्त था व एक ही बैठक में पठनीय था। इस उपन्यास की खूबी यह है कि पढ़ने वाले को यह पहले पृष्ठ से ही जकड़ लेता है और अंत तक ले जा कर ही छोड़ता है।

पूरे उपन्यास में संवाद अत्यंत मनोरंजक हैं, कहीं कोई पकाऊ और लंबा संवाद नहीं है। विशेष उल्लेखनीय इंस्पेक्टर उग्रसेन और मैना के बीच के संवाद, इंस्पेक्टर उग्रसेन और अंशु के भूत के बीच के संवाद, मैना के प्यार में पड़े इंस्पेक्टर उग्रसेन का शायराना अंदाज़ आदि बहुत मज़ेदार और खूबसूरत बन पड़े हैं। जासूस सुभाषचंद कौशिक के संवाद भी उसकी चिर परिचित शैली में मनोरंजक लगे।

पर ‘रिवेंज’ को पढ़ कर मैं कह सकता हूँ कि ‘रिवेंज’ मुझे ‘गुलाबी अपराध’ की टक्कर का नहीं लगा। ‘रिवेंज’ की तुलना ‘द ओल्ड फोर्ट’ और ‘ए TEरेरिस्ट’ से नहीं की जा सकती, क्योंकि इन दोनों का ही विषय बिलकुल अलग था। पर ‘गुलाबी अपराध’ और ‘रिवेंज’ दोनों ही मर्डर मिस्ट्री हैं। और ‘रिवेंज’ मुझे ‘गुलाबी अपराध’ की टक्कर का इसलिए नहीं लगा क्योंकि ‘गुलाबी अपराध’ के मुक़ाबले ‘रिवेंज’ में क़ातिल को पहचानना कहीं ज्यादा आसान रहा।

पेज नंबर 63 पर जासूस सुभाषचंद कौशिक की एंट्री के साथ उसके व्यक्तित्व की व्याख्या मुझे बहुत पसंद आई। “ऐसा सुकून चेहरे पर व्याप्त रहता था मानो जीवन की सभी मनोकामनाएं प्राप्त कर ली हों..” और “उसकी ठंडी आंखें दुनिया के हर भ्रम को जान लेने की चुगली करती थीं..” विशेष उल्लेखनीय हैं। जासूस सुभाषचंद कौशिक का व्यक्तित्व मुझे अनुकरणीय लगा। परन्तु, आगामी उपन्यासों में जासूस सुभाषचंद कौशिक को भी किसी से प्यार होते देखना चाहूंगा।

और एक बात जो मैं फरीदी जी के उपन्यासों के बारे में पहले भी कह चुका हूं, वो ये की इनके हर उपन्यास में भरपूर मनोरंजन के साथ कोई न कोई सीख भी होती है। ‘रिवेंज’ में नशे, अंधविश्वास और संपत्ति के लालच में बर्बाद होते परिवार पर सीख मौजूद है। इस हेतु फरीदी जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

पर कानूनी मसले पर मैं एक बात बताना चाहता हूं। यह कहना गलत है कि, संपत्ति में बहू का कोई अधिकार नहीं होता है और संपत्ति का मालिक या तो पति होता है या फिर बच्चे। किसी निःसंतान विधवा का संपत्ति के उस हिस्से में अधिकार होता है जो हिस्सा उसके पति को जीवित रहते मिलता। इस हिस्से के लिए वह अदालत में मुकदमा भी दायर कर सकती है। और इस हिस्से पर देवर या कोई भी व्यक्ति स्टे/निषेधाज्ञा नहीं ले सकता। न ही ये हिस्सा देवर के बच्चों को मिल सकता है।
हां ये बात अलग है कि विधवा बहू यदि संपत्ति विभाजन से पहले पुनर्विवाह कर ले तो उसका पहले के ससुराल की संपत्ति के किसी भी हिस्से में कोई अधिकार नहीं रहेगा।

मेरी नज़र में उपन्यास पैसा वसूल है। मैं ‘रिवेंज’ को 07/10 अंक देता हूं।

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समीक्षा- संदीप नाइक

Saturday 21 April 2018

रिवेंज- एम. इकराम फरीदी

रिवेंज और इकराम फरीदी के अन्य उपन्यासों पर चर्चा
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Md Ikram Faridi जी अच्छे शब्दों में कोई कथानक लिख सकते हैं। इसे एक अच्छा संयोग कह सकते हैं कि मैंने उनके पाँचों उपन्यास पढ़ लिए। हालिया प्रकाशित उपन्यास 'रिवेंज' एक शानदार फुल स्पीड नॉवेल है।

             'दी ओल्ड फोर्ट' जैसा एडवेंचर इस उपन्यास में भी शुरू से ही बना रहता है। ओल्ड फोर्ट में तो जगह-जगह सस्पेंस खुलता चला गया है लेकिन 'रिवेंज' की ख़ूबी ये है कि इसमें सारे सस्पेंस को लास्ट में ही खोला गया है।

             'दी ओल्ड फोर्ट' और 'ट्रेजडी गर्ल' में जासूस सुभाष चन्द कौशिक बहुत दमदार अंदाज़ में नज़र आया। लेकिन 'ट्रेजडी गर्ल' में जब 'ट्रेजडी गर्ल' को उसका पति 6 महीने तक अपने गुरू की शरण में भेजता है और वहाँ जब 'शुद्धिकरण' की प्रक्रिया से वह गुजरती है तो व्यक्तिगत रूप से जासूस सुभाष चन्द कौशिक पर मुझे बहुत क्रोध आया और उस 'शुद्धिकरण' के लिए मैंने जासूस को ही पूर्णतः दोषी माना। 'दी ओल्ड फोर्ट' में वही सुभाष चन्द कौशिक उस खौफ़नाक किले से सबको बचा लाता है और इंसानियत की भावना को अपनी जासूसी पेशे की भावना से भी ऊपर रखता है।कथानक के अंत में जब वह ठग तांत्रिक बाबा की धुलाई करता है तो उसकी भावना इस बात की गवाही देती है। फिर वही सुभाष चन्द कौशिक 'ट्रेजडी गर्ल' वाले मामले में इतना मतलबपरस्त कैसे हो गया कि उसने 'ट्रेजडी गर्ल' के पति को सारे राज़ बता दिए? अगर वह राज़ नहीं खोलता तब भी सबकुछ सही हो चुका था। सारा केस हल हो गया था। सबलोग ट्रेजडी से बाहर आ चुके थे। 'ट्रेजडी गर्ल' भी अपने अतीत से पीछा छुड़ा चुकी थी। लेकिन जासूस सुभाष की वजह से ही उसे अपने अतीत के अध्याय से नए सिरे से पुनः दो-चार होना पड़ा। हालांकि कथानक के अंत में उसका मुजरिम के सामने लेक्चर बहुत शानदार लगा फिर भी उसके द्वारा राज खोलने को लेकर उत्पन्न हुई नई ट्रेजडी से मैं बेहद ख़फ़ा था। मेरी शिक़ायत बिना कहे ही दूर हो गई प्रस्तुत उपन्यास 'रिवेंज' में...! जब लगातार दो हत्याएँ जासूस सुभाष चन्द कौशिक की ही मौजूदगी में हो जाती हैं और वह कुछ नहीं कर पाता। उसकी सारी धुरंधरी फ़ना हो जाती है क्योंकि कातिल ने बाकायदा अल्टीमेटम देकर वो क़त्ल किए। इतना धुरंधर जासूस जब दोनों मर्डर केस में पटखनी खा जाता है तब मुझे तो बहुत सुकून मिला क्योंकि 'ट्रेजडी गर्ल' की ज़िन्दगी में उसी के द्वारा राज़ खोल देने पर  सब तरफ़ से दूर हुई ट्रेजडी के बाद नई ट्रेजडी पैदा हो गई। ये कैसी पेशे की वफ़ादारी जो एक थम चुके तूफ़ान को नए रूप में पैदा कर दे? जासूस सुभाष चन्द कौशिक की वजह से 'ट्रेजडी गर्ल' की ज़िन्दगी में आई नई ट्रेजडी का रिवेंज इस हालिया प्रकाशित उपन्यास 'रिवेंज' में तब मिल जाता है जब धुरंधर जासूस होकर भी वह एक नारी के ही समक्ष असहाय हो जाता है और अंत-अंत तक वह उसके सामने अपनी धुरंधरी नहीं झाड़ पाता। मैं जानता हूँ कि जिन पाठकों ने 'ट्रेजडी गर्ल' नहीं पढ़ी होगी वो मामले को उतना नहीं समझ पा रहे होंगे लेकिन यहाँ मैं एक बात क्लीयर कर दूँ कि 'ट्रेजडी गर्ल' और 'रिवेंज' बिल्कुल दो अलग-अलग कहानियाँ हैं और उनका आपस में कोई संबंध नहीं है। मैंने जो बातें लिखी हैं उन पर शायद...हाँ, शायद लेखक महोदय ने भी उस एंगल से नहीं सोचा होगा।

              'रिवेंज' एक ऐसी रहस्य और सस्पेंस वाली कहानी है जिसमें कातिल लगातार हत्याएँ करने का इरादा रखता है। न सिर्फ़ इरादा ही रखता है बल्कि उसे अंजाम देने के लिए बाकायदा भावी मकतूल के घर वालों को पहले से अल्टीमेटम देता है। यही नहीं, बल्कि उसका दुस्साहस इतना है कि बात आन पर आने पर वह यह अल्टीमेटम पुलिस को भी देता है और पुलिस को खुला चैलेंज देता है कि इस मर्डर को पुलिस भी नहीं रोक पाएगी। पूरा महकमा इस संभावित हत्या को रोकने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देता है लेकिन कातिल अपने मकसद में कामयाब हो जाता है। दूसरी बार भी ऐसा ही होता है और कातिल फिर से चैलेंज देकर नया क़त्ल कर देता है। तयशुदा दिन को...! पुलिस के लिए ये एक चैलेंजिंग केस बन जाता है लेकिन मर्डरर का कोई क्लू नहीं मिलता। वो सामने होते हुए भी नहीं होता। उससे भी बड़ी और चैलेंजिंग बात ये होती है कि ये हत्याएँ धुरंधर जासूस सुभाष चन्द कौशिक की मौजूदगी में हो जाती हैं और उसे भी अल्टीमेटम की पूरी जानकारी रहती है लेकिन वह इन घटनाओं को रोक नहीं पाता और उसकी सारी धुरंधरी हवा हो जाती है।

            जो पाठक/पाठिका सुभाष चन्द कौशिक की कार्यक्षमता पर सवालिया निशान लगते और उसकी धुरंधरी के धुर्रे उड़ाती हुई घटनाओं को पढ़ने के तलबगार हैं वो 'रिवेंज' पढ़ें।

           'रिवेंज' में मैना का किरदार बहुत दमदार है और सब पर भारी है, लास्ट के सीन की बात छोड़ दें तो सुभाष चन्द कौशिक पर भी भारी है। इसके अलावा पेज नंबर 142 से 146 तक मैना और उग्रसेन के बीच का प्रसंग और प्रसंगानुकूल शायरी का मेयार पाठकों के लिए उपन्यास में वक्त खपाने की कीमत अदा कर देता है। खास बात यह भी रही कि उपन्यास का एडवेंचर शुरू से लेकर अंत तक कहीं भी कम नहीं होता और पाठक को जल्द-से-जल्द अंत जानने की जिज्ञासा बनी रहती है। इसके लिए लेखक को विशेष बधाई...👍

               मैं अपनी बातें रखने के वक्त कमियाँ निकालने के लिए भी बदनाम हूँ इसलिए यहाँ भी अपने इस बेतकल्लुफ़ी पर आमादा हुए बग़ैर नहीं रह पाऊंगा। तो अब आते हैं उपन्यास 'रिवेंज' की कमियों पर....

               'ए TEरेरिस्ट' में प्रिंटिंग मिस्टेक न के बराबर था जबकि 'रिवेंज' में ऐसे मिस्टेक्स हैं।

                (1) कथानक की शुरुआत में ही पेज नंबर 7 पर ऊपर की दूसरी लाइन में मोनू की उम्र 14 साल लिखी गई है जबकि पेज नंबर 53 पर 15 वर्ष बताई गई है।

                (2) मोनू के भाई का जगह-जगह पर नाम 'शैलेष' लिखा गया है। मेरे ख़याल से 'शैलेश' सही होगा।

                (3) पेज नंबर 37 पर चेतना, ज्योतिका से पहली बार सुभाष चन्द कौशिक को फोन लगाने को पूछती है और फोन लगाती भी है जबकि आगे पेज नंबर 49 पर पुनः बताया गया है कि चेतना, ज्योतिका के निर्देश पर सुभाष चन्द कौशिक को पहली बार फोन लगाती है।

                (4) पेज नंबर 235 पर लिखा गया है कि मिशन पूर्णतः 'असफल' रहा था जबकि वहाँ मिशन को पूर्णतः 'सफल' रहा था- ये लिखा जाना चाहिए था।

.......और भी कमियाँ हो सकती हैं। मुझे जो याद रहीं, वो लिख दिया ताकि लेखक महोदय इस पर ध्यान देंगे। धन्यवाद....🙏

                                  समीक्षा-   अजीत कुमार शर्मा
                                                  सिवान(बिहार)

Thursday 5 April 2018

मास्टरमाइंड - शुभानंद

मास्टमाइंड - शुभानन्द

अभी अभी मास्टरमाइंड पढकर खत्म की है... बहुत ही रोमांचक उपन्यास है.  शुभानन्द सर की कलम से निकली कहानी कहीं भी बोर नहीं करती और एक बार पढना शुरू करने के बाद पूरा करके ही उठने को मन करता है.

जावेद-अमर-जॉन की जोड़ी खूब जंची है. रिंकी भी इनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती दिखी. रिंकी की अमर के साथ दुकड़ी देखकर मुझे लग रहा रहा था कि इसे  J A J R सिरीज में लिखने की योजना होगी.

        मास्टरमाइंड का रहस्य अंत तक बना रहा. कहानी बीच बीच में कई मोड़ लेती हुई  मास्टरमाइंड का इशारा दूसरी तरफ कर देती थी और अंत में भी यही लगा था कि  मास्टरमाइंड कोई और है और कहानी का असली मास्टरमाइंड उसका मोहरा मात्र है. कहानी वाकई में रहस्य की परतों से लबरेज है जिसे  जावेद-अमर-जॉन के साथ  रिंकी की चौकड़ी मिलकर उधेड़ डालती है. जावेद जैसा खुर्राट जासूस भी जिके प्लान में फंस जाए वह वाकई में जबरदस्त गेमर होगा...

मेरा तो एक ही मशवरा है कि जिसने भी इसे नहीं पढा है वह एक बार इसे पढे जरूर...

समीक्षक-
सतवीर वर्मा 'बिरकाळी'- No. 9112003232
हनुमानगढ़, राजस्थान