Thursday 7 February 2019

दांव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज

दाव खेल, पासे पलट गये- वेदप्रकाश कांबोज
समीक्षा- शिखा अग्रवाल

          सबसे पहले बात लेखकीय की तो लेखकिय पहले प्रकाशित उपन्यास प्रेतों के निर्माता की तरह ही बेहतरीन है,उपन्यास के4 मुख्य पात्र है-विजय,फन्ने खा तातारी,कुंदन कबाड़ी और हुचांग,कहानी भारत और रूस के बीच होने वाले गुप्त समझौते से होती है जिसे रोकने और मालूम करने के लिए चीनी अपने जासूस हुचांग को मिशन पर भेजते है,भारत की तरफ से दस्तावेज लाने की जिम्मेदारी विजय को दी जाती है जो भारतीय सीक्रेट सर्विस का महत्वपूर्ण सदस्य है,इस मिशन में विजय का साथ कुंदन कबाड़ी और फन्ने खा तातारी देते है जो सी.आई.डी. में ट्रेनी है,विजय और हुचांग की एक मुलाकात पहले भी हुई होती है जिसमे हुचांग जुए में उसे चालाकी से हराता है,तब विजय उससे कहता है कि मेज के जुए में और जिंदगी के जुए में बहुत फर्क होता है!पूरे नोवल में शुरू से अंत तक दाव खेल चलते रहते है और अंत तो जबरदस्त है ही जब पासे पलटते है,तातारी और कबाड़ी की झकझकिया हँसा हँसा कर पागल कर देती है,कही ना कहीं इन दोनों का किरदार मुझे विजय पे भी भारी पड़ता हुआ लगा,अंत बहुत ही चौकाने वाला है,पूरा नॉवल एक ही बैठक में पठनीय है!पिछले नॉवेल में प्रूफ रीडिंग की जो गलतियां सामने आई थी वो इस नॉवेल में पूरी तरह दुरुस्त कर दी गयी है!आगे भी सर के ऐसे ही बेहतरीन नगीने हमे पड़ने को मिलते रहेंगे यही आशा है.
अंत तातारी की एक झकझकी से करना चाहूंगी-
           मेरी ऐसी हुई पिटाई
           आ गई याद मुझे मेरी ताई
           बिना उस्तरे करे हजामत
           कैसा है यह नाई
                           मेरी ऐसी हुई.....
            हड्डी सारी चटक रही है
           टीस रहा है गाल
           दर्द की लहरें वही से उठे
           जहा भी रख दु हाथ
           कोमल काया दनलपिलोसि
           धुन कर करी चटाई
                 कि मेरी ऐसी हुई पिटाई
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